अमेरिका का बढ़ता कर्ज, वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा खतरा, निवेशक हो रहे है चिंतित

अमेरिका पर बढ़ता हुआ कर्ज पूरी दुनिया को सोचने के लिए मजबूर कर रहा है। चीन का अमेरिकी कर्ज से बाहर निकलना और ज्यादा डराने लगा है। यह वैश्विक आर्थिक उथल-पुथल पैदा कर सकता है। इससे डॉलर की स्थिति कमजोर होगी। ऐसे में एक सवाल उठा है। दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार जब धीरे-धीरे कर्ज चुकाने में नाकाम होने लगे तो क्या होगा? निवेश बैंकर सार्थक आहूजा के मुताबिक, यह सवाल जल्द ही वैश्विक अर्थव्यवस्था को परिभाषित कर सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि बड़े देश अमेरिका से अपना पैसा निकालना शुरू कर रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने चेतावनी दी है कि अमेरिकी कर्ज का जाल हाथ से निकल गया है। आहूजा का लिंक्डइन पोस्ट वित्तीय हलकों में बहस छेड़ रहा है। उन्होंने सीधे शब्दों में चेतावनी दी है। कहा, 'अमेरिका पर यूरोप, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका की कुल जीडीपी से भी ज्यादा कर्ज है। यह हर अमेरिकी पर 100,000 डॉलर से ज्यादा का कर्ज है।'
यह चेतावनी आईएमएफ की ओर से अमेरिका के 36 ट्रिलियन डॉलर के संघीय कर्ज पर हालिया आंकड़े के बाद आई है। यह कर्ज मुख्य रूप से 2008 के बाद के बेलआउट ( आर्थिक संकट से उबारने के लिए दी गई मदद), रिकॉर्ड रक्षा खर्च और महामारी के दौरान दिए गए प्रोत्साहन पैकेजों के कारण बढ़ा है। अब अमेरिका के सबसे बड़े कर्जदार अपना पैसा वापस चाहते हैं। चीन, जापान, ब्रिटेन और कनाडा जैसे देश चुपचाप अमेरिकी ट्रेजरी बॉन्ड (सरकारी प्रतिभूतियां) बेचना शुरू कर चुके हैं। आहूजा लिखते हैं, 'चीन, जो अमेरिका का सबसे बड़ा कर्जदार है, उसने पहले ही शुरुआत कर दी है। जापान भी वही कर रहा है।'
भारत कैसे खुद को बचा सकता है?
भारत को इस संभावित डॉलर संकट से बचने के लिए बहुआयामी रणनीति अपनानी होगी। इसका पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम डी-डॉलराइजेशन है। इसके तहत भारत को रूस और यूएई जैसे देशों के साथ स्थानीय मुद्राओं (जैसे रुपया) में व्यापार को बढ़ावा देना होगा ताकि डॉलर की अस्थिरता का असर कम हो सके। दूसरा, भारत को 'मेक इन इंडिया' और पीएआई स्कीमों के जरिये एक विश्वसनीय ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग हब बनकर विदेशी निवेश (एफडीआई) को आकर्षित करना होगा, जो चीन से बाहर निकल रही कंपनियों के लिए आकर्षक विकल्प बन सके। तीसरा, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) को अपने विदेशी मुद्रा भंडार का कुशल प्रबंधन करना होगा। इसमें सोने और अन्य मजबूत मुद्राओं की हिस्सेदारी बढ़ाकर जोखिम को कम करना पड़ेगा। इसके साथ ही, राजकोषीय अनुशासन बनाए रखना और ऊंची विकास दर हासिल करना जरूरी है ताकि रुपये का आंतरिक मूल्य स्थिर रहे। साथ ही भारत वैश्विक आर्थिक उथल-पुथल के बजाय ग्लोबल सप्लाई चेन का केंद्र बन सके।
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